Monday, July 30, 2012

मधुगीता - 1


 मैं फँसा बड़ी दुविधा में हूँ
कोई आकर हल कर दे रे,
मेरे प्रियजन हैं एक तरफ
औ’ एक तरफ तू है मदिरे।

सब के सब मुझे रोकने को
सम्मुख मेरे हैं आज खड़े
मैं कैसे करूँ अवज्ञा इनकी
ये हैं मेरे पूज्य बड़े।

मैं नहीं चाहता वह मतवालापन
जिससे इनको दुख हो,
मैं देकर कष्ट इन्हें पी सकता नहीं
के चाहे जो कुछ हो।

जब ऐसे वचन कहे मैंने
निज हाथों में प्याला लेकर,
तब प्रकट हुए मधुदेव
सहस्रों हाथों में हाला लेकर।

औ’ मुझसे कहने लगे वत्स
तुझको यह मोह हुआ कैसे
तू तो था वीर तुझे यह
कायर वाला रोग लगा कैसे।

इसलिए त्याग दे दुर्बलता
उठ पुनः थाम अपना प्याला,
बनता हूँ साकी तेरा मैं
तुझको देता अमृत हाला।

क्षणभंगुर है तेरा तन मन
है पल भर का तेरा जीवन
पर प्रेम तेरा मदिरा से अद्भुत
अजर अमर अनंत पावन।

मदिरा में कुछ भी बुरा नहीं
है छिपी बुराई अंतर में
मदिरा केवल बाहर लाती
छिपकर जो बैठा अंदर में।

या तुझको परमानंद मिलेगा
जब पी लेगा तू छककर
या दुख जो छिपकर बैठा है
अंतर में, आएगा बाहर।

तू नहीं पिएगा आज अगर
जीवन भर दुख से तड़पेगा
तेरे प्रियजन सब साथ रहेंगे
पर मदिरा को तरसेगा।

Wednesday, December 23, 2009

मधु आरती

आरति कर श्री मधुशाला की,
हाला, बाला औ' प्याला की।

गावत विधि-हरि-हर-मुनि-नारद,
पैगम्बर व मसीह विशारद,
बुद्ध करत आरति हाला की।

पीते देव, असुर सब मिलकर,
ऋषि, मुनि, नर भी पीते छककर,
करते सब जय-जय प्याला की।

ऐ मदिरे तू घृणा नाश कर,
प्रेम रूप धर हृदय वास कर,
जय बोलो साकीबाला की।

ऐ हाले तू धर्म मिटा दे,
मानवता का दीप जला दे,
जय बोलें सब मधुशाला की।

(६०)

कितना भी लिख लो यार, मगर,
कितना फिर भी रह जायेगा;
हम-सा, तुम-सा ही फिर कोई
आयेगा जग में मतवाला।

मदिरा पीकर, पागल होकर,
वह भी फिर कुछ लिख जायेगा;
और बन जायेगी यार पुनः,
इक नयी-नवेली मधुशाला।

(५९)

तू इतने निकट खड़ी मेरे,
छू सकूँ बढ़ाकर निज प्याला;
पर डर लगता है, यार मुझे
दुत्कार न दे साकीबाला।

मैं कैसे बतलाऊँ कितना,
मधु को चाहे ये मतवाला;
कब तक मैं करूँ प्रतीक्षा,
के अब पहल करेगी मधुशाला।

(५८)

मतवाला होकर मैंनें जब
मदिरालय का अपमान किया,
विधि, हरि, हर, पूज्य गुरूजी
तक ने, था मुझको दुत्कार दिया।

मादक मदिरे कर क्षमा मुझे,
मैं बहक गया था पी प्याला;
था भूल गया मेरा तन-मन-
जीवन सब मेरी मधुशाला।

(५७)

वीणा-वादिनि वह राग सुना,
नभ हो मधु के घन से काला;
और भू पर इतनी मात्रा में,
वे मधु-घन बरसायें हाला।

बह जायें सब मन्दिर-मस्जिद,
फूटे कंठी, टूटे माला;
हो खत्म धर्म, बस प्रेम बचे,
और बची रहें सब मधुशाला।

(५६)

श्रद्धा, आदर, अनुराग और
चिर-आराधना की है हाला;
अब तो आ भोग लगा जाओ,
कब से बैठा हूँ भर प्याला।

हे मेरे गुरुदेव आपके
पावन चरणों को छूकर,
कब होगी कृत्कृत्य मेरी
यह नन्हीं-मुन्हीं मधुशाला।

(५५)

गुरुदेव मेरे हैं चिर अतृप्त,
पीकर असंख्य मधु-सुधा-सिन्धु;
कैसे उनको संतुष्ट करूँ, मैं हूँ
मधु का अतिसूक्ष्म बिन्दु।

मैं उनकी तृषा बढ़ाऊँगा ही,
फिर भी होकर मतवाला;
अर्पित करता निज हृदय और
भावों की कोमल मधुशाला।

(५४)

प्यासा देख तेरे दीवानों को,
सुन ओ प्यारी हाला;
बह्मा ने स्वर्ण कमंडल अपना,
सारा खाली कर डाला।

औ’ उस मधुगंगा से भरकर,
मेरे दिल का खाली प्याला;
इस जग की प्यास बुझाने को,
खुलवा दी मुझसे मधुशाला।

(५३)

हैं पूछ रहे सब लोग यही,
क्यों खुद को पागल कर डाला;
इस दुनिया के दुख-दर्दों से,
क्यों अपने दिल को भर डाला।

मस्तिष्क मेरा है कुन्द हो
चुका, पी मानवता की हाला;
दर्दों का घर दिल बना, देख
दुख लोगों का इस मधुशाला।

(५२)

हाला है खोज थकी सब जग,
पाने को वह पीनेवाला;
पीकर जो झूमे औ’ नाचे,
ऐसा दीवाना मतवाला।

क्यों तूने ना देखा मदिरे,
वो दीवाना पीकर प्याला;
लुढ़का होगा कोने में कहीं,
जा खोज उसे तू मधुशाला।

(५१)

यदि मेरे मग के हर पग में,
प्रभु डालो काँटो की माला;
मैं पीकर पागल हो जाऊँ,
बस इतनी दे देना हाला।

चलता जाऊँगा मैं हँसकर,
रोये चाहे साकीबाला;
बिंधता है तो बिंध जाये तन,
पर मैं पहुँचूंगा मधुशाला।

(५०)

मदिरे तूने जाने मुझपे कब,
ऐसा जादू कर डाला;
हालत है मेरी कुछ ऐसी,
हूँ बिना पिये ही मतवाला।

इक दिन मैं भटकूँगा मजनूँ
बन, कहती है साकीबाला;
पर अब ना मेरे वश में मेरा
मन, ओ मेरी मधुशाला।

(४९)

तिनके-तिनके चुनकर मैंने,
मदिरालय निर्मित कर डाला;
कोमल कलियों की पंखुडि़यों से
मैंने उसको भर ड़ाला।

पर जैसे ही मैंने हाथों में
थामा इक मधु का प्याला,
जाने क्यों नन्हें झोंके से ही
बिखर गयी थी मधुशाला।

(४८)

तेरे नाम में इतनी मादकता,
सच कहता हूँ हो मतवाला;
है बिता दिया सारा जीवन,
मैंने जप मधु-मदिरा-हाला।

अच्छा ही हुआ मुझको आजीवन,
मिल न सकी मादक हाला;
जाने क्या होता यदि मुझको,
मिल जाती यारों मधुशाला।

(४७)

है कड़वी ये, तीखी भी है,
रंग में कुछ खास नहीं हाला;
मेरा जीवन-तन-मन इसने,
है नष्ट भले ही कर डाला।

वायदा रहा मेरा, कि फिर भी
पीता जाऊँगा प्याला;
क्या है तुझमें समझेगा तेरा
प्रेमी ही, ओे मधुशाला।

(४६)

खुद नीचे गिरकर इस जग को,
तू देता है जीवन हाला;
धरती की प्यास बुझाने को,
तन-मन न्योछावर कर डाला।

हूँ देख तेरा मतवालापन,
मैं कहता, निर्झर, पी प्याला;
तेरा उद्गम है जहाँ, वहाँ,
थी कभी रही इक मधुशाला।

(४५)

छिन जाये मेरा सब कुछ पर,
बस बचा रहे मेरा प्याला;
जग से मिट जाए सब कुछ
भगवन, मिटे न पर मादक हाला।

जग ले जाये सब सुन्दिरयाँ,
बस बची रहे साकी बाला;
प्रभु स्वर्ग उसे दो जो माँगे,
मुझको दो मेरी मधुशाला।

(४४)

है देव नहीं वह है पत्थर,
स्वीकार न जिसको हो हाला;
मत कह देना मानव उसको,
हो पिया नहीं जिसने प्याला।

वह घर श्मशान समान जहाँ,
कोई ना हो पी मतवाला;
वह शहर नहीं प्रेतों का डेरा,
हो न जहाँ पर मधुशाला।

(४३)

लोगों को लगता गंगाजल
जो, मुझको लगता है हाला;
लोग हैं कहते जिसे धर्म,
मुझको लगता मधु का प्याला।

लोगों को जो लगे पुजारी,
मुझको लगता है साकी;
मन्दिर कहते लोग जिसे,
वह लगता मुझको मधुशाला।

(४२)

कभी-कभी मैं पी लेता था,
आधा-चौथाई प्याला;
औ’ कहता था सबसे, मुझको
मदहोश न कर पायी हाला।

जब इक दिन मुझे पिला बैठी,
छककर यारों साकीबाला;
तब जाकर मुझको ज्ञात हुआ,
है विश्व-विजयिनी मधुशाला।

(४१)

जो दर्द खींच ले इस दिल का,
है यार कहाँ ऐसी हाला?
जो डुबा सके मस्ती में मुझको,
यार कहाँ ऐसा प्याला?

दिल में मेरे बस पाये ऐसी
मिली नहीं साकीबाला,
जीवन अपना दूँ बिता जहाँ
है यार कहाँ वह मधुशाला?

(४०)

पुत्री इसाई, पुत्र सिक्ख है,
हिन्दू है पति, मुस्लिम माँ है,
आज मेरे मदिरालय का, यारों
देखो कुछ अजब समाँ है।

जिसमें जिसकी जैसी श्रद्धा,
लो वही धर्म पीकर हाला;
है बोझ नहीं तन-मन-आत्मा
पर धर्म हमारी मधुशाला।

(३९)

अपराध बोध हो यदि मन में,
तो मत छूना यारों प्याला;
काबू ना हो यदि अपने पर,
होठों पर मत रखना हाला।

यदि डरते हो बदनामी से,
मत होना पीकर मतवाला;
हो छुपा रहे निज कर्मों को तो,
मत जाना तुम मधुशाला।

(३८)

उस गली न कभी गया हूँ मैं,
जिस गली न मिलता हो प्याला;
वह सड़क नहीं देखी मैंने,
हो नहीं जहाँ साकीबाला।

उस घर में नहीं कदम रक्खा,
हो जहाँ न कोई मतवाला;
ऐसे न शहर का नाम सुना,
हो जहाँ न कोई मधुशाला।

(३७)

काश तेरे हाथों में कान्हा,
चक्र नहीं होता प्याला;
गीता का उपदेश नहीं,
तू अर्जुन को देता हाला।

आसमान से मधु-वर्षा कर,
करता सबको मतवाला;
कौरव-पाण्डव सब मिलकर,
पीते बैठ एक ही मधुशाला।

(३६)

जहाँ बहा करतीं थीं नदियाँ,
मधु की हे हर देख जरा;
तेरा भोग लगाने को भी,
ना अब मिलती है मदिरा।

फिर से इक लट जटाजूट
की लटका दे पीकर हाला,
मधु-गंगा की प्रेम-धार से
जगत बने फिर मधुशाला।

(३५)

गीता, बाइबिल, कुरान सखे,
सब कहते पियो प्रेम हाला;
पर पंडित, मुल्ला, पादरियों ने,
मिला दिया विष का प्याला।

हैं धर्मग्रन्थ अब छोड़ चले,
मन्दिर, मस्जिद, गिरिजाधर को;
आश्चर्य न करना यदि कह दूँ,
सब आकर बैठे मधुशाला।

(३४)

सब साथ छोड़ देंगें तेरा,
पर साथ न छोड़ेगी हाला;
चाहे न मिले गंगाजल पर,
तिहुँ लोक मिले मधु का प्याला।

देवों दैत्यों दोनों को तू,
पायेगा पीकर मतवाला;
हो स्वर्ग-नर्क-बैकुंठ-ब्रह्म,
हर लोक मिलेगी मधुशाला।

(३३)

बन प्रेत भटकता था क्योंकि,
थामा कर में न कभी प्याला;
इक दिन भूला-भटका गुजरा,
मरघट से जब पीनेवाला।

बेध्यानी में थी छलक पड़ी,
तब मेरी राख पर कुछ हाला;
मैं तुरत गया बैकुंठ धाम,
कह, “जय-मदिरा, जय-मधुशाला”।

(३२)

मैं हूँ मधु का चिर-विक्रेता,
हूँ बेच रहा जीवन हाला;
मैं देख रहा हूँ सब पीते हैं,
ले अपना-अपना प्याला।

मधु वही एक इक मादकता,
अन्तर इतना सा है यारों;
कुछ की मधुशाला सोने की,
कुछ की मिट्टी की मधुशाला।

(३१)

बुद्ध, कृष्ण, ईशा, पैगम्बर,
बैठे हैं लेकर प्याला;
सब हैं मस्ती में झूम रहे,
पीकर मधु होकर मतवाला।

बाहर लड़ता सारा जग कह,
जय राम, कृष्ण, अल्लाताला;
भीतर प्याला टकराकर चारों,
बोल रहे जय मधुशाला।

(३०)

बूँद-बूँद कर सन्नाटा,
है टपक रहा बनकर हाला;
अंधकार ही घनीभूत हो,
आया है बनकर प्याला।

विधवाओं का सा वेश धरे,
है सिसक रही साकीबाला;
जग कहता मेरा भाग्य यही,
है ये ही मेरी मधुशाला।

(२९)

मैं पुनर्जन्म लूँ भारत में,
ले दोनों हाथों में प्याला;
औ’ प्रथम वाक्य मेरे मुख से
निकले, "जय भारत, जय हाला"।

गर अन्तर में कुछ हो मेरे,
तो हो मानवता की ज्वाला;
जीवन भर जो कुछ कमा सकूँ,
उससे खुलवा दूँ मधुशाला।

(२८)

मत ला अपनी आँखों में आँसू,
ओ मेरे पागल प्याले;
यदि प्रेम तेरा मुझसे सच्चा,
तो काल भी हारेगा हाले।

इक ना इक दिन जाना सबको
हो साकी या पीनेवाला,
मैं चला काल के संग अभी
पर फिर जन्मूँगा मधुशाला।

(२७)

मैं समझा करता था कल तक,
मुझसा न कोई पीनेवाला;
पर उसने तो क्षण भर में ही
मदिरालय खाली कर डाला।

है खुशी मुझे, मुझसे भी अच्छा,
आया है इक मतवाला,
उसके हाथों में सौंप, खुशी से
छोड़ चला मैं मधुशाला।

Monday, December 21, 2009

(२६)

कितने आये मदिरालय में,
इक प्याले में ही लुढ़क गये;
कुछ मतवालों ने पर फिर भी,
मदिरालय खाली कर डाला।

अपना सब कुछ न्योछावर कर
डाला मदिरा के प्याले पर,
ऐसे मतवालों के कारण ही
अमर हुयी है मधुशाला।

(२५)

है दोष नहीं पीनेवालों का,
वो हैं पागल मतवाले;
मादकता देन प्रभू की है,
ये गुण है दोष नहीं हाले।

पर ना जाने क्यों औरों के
हाथों में जब देखूँ प्याला,
जी करता अग्नि-समर्पित कर
अब राख करूँ मैं मधुशाला।

(२४)

जब प्यास जगे तुझमें तो यह
मत सोच कहाँ पर है प्याला,
यदि नहीं मिले तुझको साकी
तो बन खुद ही साकीबाला।

मन में विश्वास जगा गर तो
जल भी बन जायेगा हाला,
जग के हर इक कोने में तुझको
मिल जायेगी मधुशाला।

(२३)

मैं खोज सका यह सारा जग,
पाने को एक झलक प्रभु की;
और यही थकान मिटाने को,
मैं पी बैठा छककर हाला।

जब लगा झूमने तो देखा,
हैं नाच रहे भगवन पीकर;
मैं बस इतना ही बोल सका,
जै श्री भगवन जै मधुशाला।

(२२)

जिस मदिरालय के आँगन में,
मैंने जीवन जीना सीखा;
उस मदिरालय का जीवन-रस
गर आज हो गया है रीता।

कर अग्नि समर्पित रीति निभाओ,
कहता है जग मतवाला;
ये रीति न निभा सकूँगा मैं,
मुझसे न जलेगी मधुशाला।

(२१)

जग ने ना था आगाह किया,
जब प्रथम बार पी थी हाला;
जब पूछा था अवगुण मधु का,
तब सब ने था मुझको टाला।

रोक सके ना कोई भी अब,
मुझको पीने से प्याला;
आत्मा तक में मेरी, है अब
तो, रची-बसी वह मधुशाला।

(२०)

छककर पीयूँगा सुरा सोंच,
आकर बैठा मदिरालय में;
आदेश दिया साकी को, लेकर
आ इक मदिरा का प्याला।

लायेगा साकी और पियूँगा
छककर, इसी कल्पना में,
ना पता चला कब परमतृप्त
हो, छोड़ी मैंने मधुशाला।

(१९)

टपक टपक कर बूँद-बूँद,
क्यों मुझको तड़पाती हाला?
नन्हा सा होकर जाने क्यों,
है मुझको तरसाता प्याला?

बस एक झलक दिखलाकर
क्यों गायब होती साकीबाला?
क्षण भर में ही बनकर मिट
जाती है क्यों मेरी मधुशाला?

(१८)

कल तक मेरे चरणों को
धोया करती थी यारों हाला,
सौभाग्यवान समझा जाता था
मेरे हाथों में प्याला।

और आज द्वार से ही दुत्कारे
देती है साकी बाला,
है फेर समय का अब मुझको
कह रही अपरिचित मधुशाला।

(१७)

नये-नवेले जगमग करते,
कितने मदिरालय देखे;
ताँबे, चाँदी, सोने के मैंने,
कितने ही प्याले देखे।

पर न जाने क्यों मुझे जँचा,
वह नन्हा मिट्टी का प्याला;
और जाने क्यों मुझको जँचती,
वह टूटी फूटी मधुशाला।

(१६)

मैं देख रहा हिन्दू-मुस्लिम,
दोनों को है प्यारा प्याला;
मन्दिर-मस्जिद सब भूल-भाल,
दोनों मिलकर पीते हाला।

सब झगड़े झंझट मिट जायेंगे,
यारों यदि इतना कर दो;
तुड़वाकर सब मन्दिर-मस्जिद,
खुलवा दो सुन्दर मधुशाला।

(१५)

तेरे प्यार में मैं यों पागल हूँ,
सच कहता हूँ ऐ मधुशाले;
मुँह से है निकलता राम-राम,
जब कहता हूँ जय श्री हाले।

जन कहते चरणामृत पीता,
मैं समझ रहा पीता हाला;
सब कहते मैं जाता मन्दिर,
पर मैं जाता हूँ मधुशाला।

(१४)

प्रेयसि आओ मिल आज बनायें
अपने अधरों को प्याला,
इन मधुमय हाथों से हम-तुम
फिर डाल प्रणय की वरमाला;

तुम भी पी लो, मैं भी पी लूँ,
चिर तृप्ति न हो तब तक हाला;
बन जाये मधु यह प्रेम-अमर,
बाँहें बन जायें मधुशाला।

(१३)

मदिरा नेत्रों में, अधरों में,
सांसों मे महक रही हाला;
हो मुस्काती जब शर्माकर,
कर देती जग को मतवाला।

जब चलती हो मन्थर गति से,
छलका करता मधु का प्याला;
मैं और लिखूँ क्या शब्द नहीं,
तुम चलती फिरती मधुशाला।

(१२)

कैसे कह दूँ मैं केश इन्हें,
जब इनसे महक रही हाला;
मैं नेत्र कहूँ कैसे इनको,
ये करते मुझको मतवाला।

कैसे कह दूँ मैं अधर उन्हें,
जो लगते मदिरा का प्याला;
मतवाला कर दे जो जग को,
तुम हो वह मादक मधुशाला।

(११)

तेरे अधरों का रस पहले,
या पहले आयी थी हाला;
मानव पहले मदिरा पीकर,
या तुझको छू था मतवाला।

हूँ असमंजस में; सच कहता हूँ,
पीकर मदिरा का प्याला;
हो तुम जन्मी मधुशाला से,
या तुमसे जन्मी मधुशाला।

(१०)

जो धुल न सके गंगाजल से,
वह पाप भी धो देती हाला;
जो मिल न सके चरणामृत से,
वह पूण्य भी देता है प्याला।

सौ सुन्दिरयों की मादकता,
देती है इक साकीबाला;
सारे तीर्थों के दर्शन का
फल दे देती इक मधुशाला।

(९)

अमृत कह दो, जहर कहो,
चरणामृत बोलो या हाला;
कुछ भी कह दो, क्या अन्तर है?
पात्र, कटोरा या प्याला।

हिन्दू कह दो, मुस्लिम कह दो,
कहो इसाई या साकी;
मन्दिर कह लो, मस्जिद कह लो,
चर्च कहो या मधुशाला।

(८)

खूँ की प्यासी तलवारों से,
अच्छा है थाम लेना प्याला;
निदोर्षों का खूँ पीने से तो,
अच्छा है पीना हाला।

पापी पंडित, कठमुल्लाओं से,
है अच्छी साकी बाला;
लोहू लिपटे मन्दिरों-मस्जिदों
से है अच्छी मधुशाला।

(७)

पीता जा तू भरकर प्याला,
जपता जा प्यालों की माला;
तुझको रोकें धर्म-गुरू तो,
उनसे पूछ प्रश्न ये वाला।

मदिरा यदि है बुरी अगर तो,
कोई आकर बतला दे क्यों;
उतने मन्दिर नहीं जगत में,
जितनी जग में हैं मधुशाला।

(६)

कोई कहता है मन्दिर में,
तो कहता कोई मस्जिद में;
कोई कहता गुरुद्वारे में,
कहता कोई गिरिजाघर में।

मैं कहता जग को और जगत
कहता है मुझको मतवाला;
क्योंकि मैंने अक्सर देखा है
प्रभु को बैठे मधुशाला।

(५)

ओ प्रथम बार पीने वाले,
तुझको अनुभव होगा ऐसा;
मुख-उदर बीच के हर अंग को,
है भस्म किये जाती हाला।

इतने में ही धबराकर, तू
ना कहीं पटक देना प्याला;
कुछ काल ठहर और देख जरा,
उड़ती है कैसे मधुशाला।

(४)

मधु के नव प्रेमी को मैंने,
पकड़ाया जब नन्हा प्याला;
अधरों पर रखते ही उसने
फेंका, कह, “अति कड़वी हाला”;

पर किसी तरह जब छककर-
उसे पिला बैठी साकी बाला,
मधुपान के लिए प्रतिदिन-
आया, सपरिवार, वो मधुशाला।

(३)

मधु का मैं भी था महाशत्रु,
जब तक कर में न लिया प्याला;
पर एक बार जब मुझे पिला दी,
साकी ने जबरन हाला।

तब से मुझको यह ज्ञात हुआ,
हर घर, हर आँगन है प्याला;
सब जन पीते निशि-वासर मधु,
यह जगत प्रेम की मधुशाला।

(२)

मैं देख रहा प्रभु ऊब गये-
तुम पीते-पीते गंगाजल;
थक गये देख तुम बेल-पत्र,
मन्दार-पुष्प, औ’ तुलसी-दल।

हूँ प्यासा देख तुम्हें, हे-
भगवन! आया मैं लेकर प्याला;
अब भोग लगाकर नीलकण्ठ,
कर दो पवित्र यह मधुशाला।

(१)

है और नहीं कुछ पास मेरे,
भगवन मैं हूँ इक मतवाला;
हूँ इसीलिए अर्पित करता,
भर मदिरा, इक नन्हा प्याला।

स्वीकार तुझे तो साथ मेरे,
तू झूम आज पीकर हाला;
और दे मुझको वर, भरी रहे,
मदिरा से मेरी मधुशाला।